Indian Councils Act

भारतीय परिषद अधिनियम(Indian Councils Act)

भारतीय परिषद अधिनियम ( Indian Councils Act )- 1861

भारतीय परिषद अधिनियम 1861 ब्रिटिश संसद द्वारा 1st अगस्त 1861 को पारित किया गया था। इस अधिनियम ने सरकार की शक्ति और कार्यकारी और विधायी उद्देश्यों के लिए गवर्नर जनरल की परिषद की संरचना को बहाल किया। यह पहला उदाहरण था जिसमें गवर्नर-जनरल की परिषद के पोर्टफोलियो को शामिल किया गया था।

1861 के अधिनियम द्वारा भारत में संवैधानिक विकास का सूत्रपात किया गया। इस कानून द्वारा अंग्रेजों ने ऐसी नीति प्रारम्भ की जिसे ‘सहयोग की नीति’ (Policy of Association) या ‘उदार निरंकुशता’ (Benevolent Despotism) की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। क्योंकि इसके माध्यम से सर्वप्रथम भारतीयों को शासन में भागीदार बनाने का प्रयत्न किया गया। इस अधिनियम के माध्यम से अधोलिखित व्यवस्थाएँ की गई थीं।

  • गवर्नर जनरल को विधायी कार्यों हेतु नये प्रान्त के निर्माण का तथा नव निर्मित प्रान्त में गवर्नर या लेफ्टिनेन्ट गवर्नर को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। उसे किसी प्रान्त प्रेसीडेन्सी या अन्य किसी क्षेत्र को विभाजित करने, अथवा उसकी सीमा में परिवर्तन का अधिकार प्रदान किया गया।
  • अधिनियम द्वारा केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों की संख्या 4 से बढ़ाकर 5 कर दी गई।
  • केन्द्रीय सरकार को सार्वजनिक ऋण, वित्त, मुद्रा, डाक एवं तार, धर्म और स्वत्वाधिकार के सम्बन्ध में प्रान्तीय सरकार से अधिक अधिकार प्रदान किया गया।
  • ‘भारत परिषद’ को विधायी संस्था बनाया गया तथा उसे भारत में रहने वाले सभी ब्रिटिश तथा भारतीय प्रजा, भारत सरकार के कर्मचारियों, भारतीय रियासतों तथा सम्राट के राज्यक्षेत्रों के अधीन रहने वाले व्यक्तियों, सभी स्थानों एवं वस्तुओं के सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।
  • भारतीय परिषद अधिनियम के अधीन बंगाल, उत्तरी-पश्चिमी प्रांत एवं पंजाब में क्रमशः 1862, 1886 एवं 1897 ई० में विधान परिषदों की स्थापना हुई
  • लॉर्ड कैनिंग ने 1962 में अपने विधान परिषद-बनारस के राजा, पटियाला के महाराजा और 1962 में सर दिनकर राव को नामित किया।
  • मद्रास एवं बम्बई की सरकारों को पुनः कानून बनाने तथा उसमें संशोधन करने का अधिकार दिया गया।

1861 में भारतीय काउंसिल अधिनियम ने भारतीयों को जोड़ने की आकांक्षा को पूरा किया, भारत में कानून बनाने की दोषपूर्ण प्रणाली प्रदान की और विधान परिषदों की शक्तियों को परिभाषित किया। इसलिए, संक्षेप में इस अधिनियम ने भारत में प्रशासनिक व्यवस्था की नींव रखी जो ब्रिटिश शासन के अंत तक चली।

भारतीय परिषद अधिनियम ( Indian Councils Act )- 1892

1857 में हुई राज्य क्रान्ति तथा शिक्षा के प्रसार ने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ किया। 1885 में कांग्रेस की स्थापना तथा इलवर्ट बिल विवाद के पश्चात भारतीयों को प्रशासन तथा विधि निर्माण में और अधिक प्रतिनिधित्व देने की माँग ने काफी जोर पकड़ लिया। जिसके फलस्वरूप यह अधिनियम पारित किया गया।

अधिनियम के अन्तर्गत मुख्य बाते:

  • केन्द्रीय व्यवस्थापिका-सभा के अतिरिक्त (नामजद) सदस्यों की संख्या कम से कम 10 और अधिक से अधिक 16 निश्चित की गयी।
  • प्रान्तों में भी व्यवस्थापिका-सभा के गैरसरकारी तथा कुल सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर दी गयी। बम्बई और मद्रास में न्यूनतम 8 और अधिकतम 20, बंगाल में अधिकतम 20 और उत्तर प्रदेश में यह संख्या अधिकतम 15निश्चित की गयी।
  • निर्वाचन पद्धति का आरम्भ किया जाना इस अधिनियम की एक प्रमुख विशेषता है।
  • परिषद के अधिकारों में वृद्धि की गई तथा भारतीय सदस्यों को बजट पर बहस करने और प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। किन्तु मतदान करने या अनुपूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था।

1892 ई. में पारित किये गए अधिनियम ने भारत में संसदीय प्रणाली की आधारशिला रखी और भारत के संवैधानिक विकास में मील का पत्थर साबित हुआ| इस अधिनियम द्वारा भारत में पहली बार चुनाव प्रणाली की शुरुआत की गयी|

 

Read also:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *