जलियांवाला बाग नरसंहार के 100 साल: 13 अप्रैल, 1919
आज से ठीक 100 साल पहले, 13 अप्रैल 1919 को जनरल डायर (General Dyer) नाम के एक ब्रिटिश ब्रिगेडियर-जनरल ने अपने सैन्य दल को जलियांवाला बाग में एकत्र भीड़ पर फायरिंग का आदेश दिया था। यह बाग अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर (Golden temple) से ज्यादा दूर नहीं है। करीब 300 से अधिक लोग गोलीबारी में मारे गए। जो गोली के शिकार हुए थे, वे निहत्थे व सर्वथाशांत थे। जनरल डायर के पागलपन को पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’डायर के कदमों ने बल प्रदान किया और बिगाड़ा।
यह वर्ष इस विषय पर आई किताबों की सच्ची झड़ी का गवाह बन गया है। कुछ किताबें गंभीर और विद्वतापूर्ण हैं, तो अन्य विचारोत्तेजक और साहित्यिक एक किताब, जिसमें इन दोनों वर्गों का मिला-जुला रूप है, उसका नाम है- मार्टीडमटु फ्रीडम: 100 ईयर्स ऑफ जलियांवाला बाग (Martyrdom to Freedom: 100 Years of Jallianwala Bagh)। इस किताब को वरिष्ठ पत्रकार राजेश रामचंद्रन ने संजोया है।
जलियांवाला बाग नरसंहार का विस्तृत इतिहास (Detailed History of Jallianwala Bagh Massacre):
भारत में बढ़ती क्रांतिकारी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए ब्रिटिश भारत की अंग्रेज सरकार ने रौलेट एक्ट पास किया था। इसके तहत किसी व्यक्ति को संदेह होने पर भी गिरफ्तार किया जा सकता था या गुप्त मुकदमा चलाकर दंडित किया जा सकता था। विरोध के बावजूद इस कानून को 21 मार्च 1919 को लागू कर दिया गया।
भारत के अमृतसर शहर में, 6 अप्रैल 1919 को, इस आंदोलन के तहत एक हड़ताल की गई थी और विरोध प्रदर्शन किया गया था। लेकिन धीरे-धीरे इस अहिंसक आंदोलन ने हिंसक आंदोलन का रूप ले लिया। 9 अप्रैल को, सरकार ने पंजाब से संबंध रखने वाले दो नेताओं डॉ.सैफुद्दीन किचलू और डॉ.सत्यपाल को गिरफ्तार किया था। 10 अप्रैल को इनकी रिहाई करवाने के मकसद से डिप्टी कमांडर मिल्स इरविंग (Deputy commander Mills Irving) से मुलाकात करना चाहते थे लेकिन डिप्टी कमांडर ने इन लोगों से मिलने से इंकार कर दिया। जिसके बाद गुस्साए लोगों ने रेलवे स्टेशन, तार विभाग सहित कई सरकारी दफ्तरों को आग के हवाले कर दिया हिंसा के कारण तीन अंग्रेजों की मौत हो गई।
डायर को सौंपी गई जिम्मेदारी (Responsibility assigned to Dyer):
अमृतसर की बिगड़ती स्थिति को दूर करने के लिए, भारतीय ब्रिटिश सरकार ने इस राज्य की जिम्मेदारी डिप्टी कमांडर मिल्स इरविंग से लेकर ब्रिगेडियर जनरल आरएच डायर (R. H. Dyer) को सौंपी थी।
13 अप्रैल को अमृतसर के जलियांवाला बाग में कई लोग जमा हुए थे। इस दिन इस शहर में कर्फ्यू लगाया गया था, लेकिन इस दिन बैसाखी का त्योहार भी था। जिसके कारण अमृतसर के स्वर्ण मंदिर यानी हरमंदिर साहिब में बड़ी संख्या में लोग आए। जलियावाला बाग स्वर्ण मंदिर के करीब था। इस उद्यान में इतने सारे लोग घूमने भी गए थे और इस तरह 13 अप्रैल को लगभग 20,000 लोग इस बगीचे में मौजूद थे। जिनमें से कुछ अपने नेताओं की गिरफ्तारी के मुद्दे पर शांतिपूर्ण बैठकों में शामिल हुए थे। वहीं, कुछ लोग अपने परिवार के साथ यहां घूमने आए थे।
दोपहर 12:40 बजे, डायर को जलियांवाला बाग में बैठक के बारे में बताया गया। यह जानकारी मिलने पर, डायर लगभग 150 सैनिकों के साथ 4 बजे के आसपास बगीचे के लिए रवाना हुआ था। डायर को लगा कि यह बैठक दंगे फैलाने के लिए की जा रही है। इसलिए, इस बगीचे में पहुंचने के बाद, लोगों को कोई चेतावनी दिए बिना, कमांडरों ने गोले दागने का आदेश दिया। ऐसा कहा जाता है कि इन सैनिकों ने लगभग 10 मिनट तक गोलीबारी की थी। उसी समय, लोग गोलियों से बचने के लिए भाग रहे थे। लेकिन इस उद्यान का मुख्य द्वार भी सैनिकों द्वारा बंद कर दिया गया था और बगीचे को चारों तरफ से 10 फीट तक की दीवारों से बंद कर दिया गया था। ऐसे में कई लोग अपनी जान बचाने के लिए इस बाग में बने एक कुएं में कूद गए। लेकिन गोलियाँ थमने का नाम नहीं ले रही थीं और कुछ समय में बगीचे की जमीन का रंग लाल हो गया। इस नरसंहार में 370 से अधिक लोगों की मौत हुई थी, जिनमें छोटे बच्चे और महिलाएं भी शामिल थी
रवींद्रनाथ टैगोर खिताब लौटाया (Rabindranath Tagore returned the title):
जब रवींद्रनाथ टैगोर को जलियांवाला बाग नरसंहार के बारे में जानकारी मिली, तो उन्होंने इस घटना पर दुख व्यक्त करते हुए अपने ‘नाइटहुड (knighthood award)’ का खिताब लौटाने का फैसला किया जिसे ब्रिटिश सरकर ने 1915 में दिया।
हंटर कमेटी (Hunter Committee):
1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद एक समिति बनाई गई थी। लॉर्ड विलियम हंटर (Lord William Hunter) की अध्यक्षता में सात सदस्यीय जांच समिति (चार ब्रिटिश और तीन भारतीय) बनाई गयी समिति का मुख्य उद्देश्य जलियांवाला बाग सहित देश में कई अन्य घटनाओं की जांच करना था। जांच आयोग ने अंतिम रिपोर्ट 26 मई, 1920 को सौंपी और ये निष्कर्ष निकाला कि भीड़ षड्यंत्र के तहत इकट्ठा नहीं हुई थी। भीड़ पर फायरिंग को भी सही ठहराया गया, लेकिन यह भी कहा गया कि पूर्व चेतावनी जारी करनी चाहिए थी।
डायर की हत्या (Dyer’s murder):
डायर के सेवानिवृत्त होने के बाद, उन्होंने अपना जीवन लिडन में बिताना शुरू कर दिया। लेकिन 13 मार्च, 1940 का दिन उनके जीवन का आखिरी दिन साबित हुआ। उनके द्वारा किए गए नरसंहार का बदला लेते हुए, उधम सिंह ने उन्हें कैक्सटन हॉल (लंदन) में गोली मार दी। उधम सिंह एक भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ता थे जो 13 अप्रैल को गोली लगने से घायल हो गया थे। इस हत्या के लिए उधम सिंह को लंदन में साल 1940 में फांसी की सजा दी गई थी। उधम सिंह के इस कदम की तारीफ कई विदेशी अखबारों ने भी की और जवाहरलाल नेहरू जी ने वर्ष 1952 में उधम सिंह को शहीद का दर्जा दिया।
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