Festivals of Himachal Pradesh

हिमाचल प्रदेश के त्यौहार (Festivals of Himachal Pradesh)

हिमाचल प्रदेश में मनाए जाने वाले त्यौहारों (Festivals) का प्रदेश में बदलती ऋतुओं से सीधा संबंध है। प्रत्येक नई ऋतु के आने पर कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। इसके साथ कुछ त्यौहारों के फसल का आने से भी संबंध है। त्यौहारों की नथियां देशी विक्रमी संवत् के महीनों के अनुसार गिनी जाती हैं। प्रत्येक महीने का पहला दिन संक्रांति कहकर पुकारा जाता हैं और कई लोग इस दिन व्रत रखते हैं। इसी प्रकार पूर्णिमा का दिन, जिस दिन चन्द्रमा पूर्ण रूपेण आकाश में दिखाई देता है, को भी शुभ माना जाता है। प्रत्येक त्यौहार के समय विवाहित लड़कियों को अपने घर बुलाना मां-बाप अपना कर्तव्य समझते हैं। प्रदेश में मनाये जाने वाले त्यौहार निम्न हैं-

1. बैसाखी (Baisakhi)-

बिस्सु या बिस्सा (शिमला), बीस (किन्नौर), बओसा (बिलासपुर-कांगड़ा), लिसू (पांगी) नामों से ज्ञात यह बैसाखी का त्यौहार पहली बैसाख यानि 13 अप्रैल को लगभग सारे प्रदेश में मनाया जाता हैं। इस त्यौहार का संबंध रबी की फसल के आने से है। इस दिन बिलासपुर में मारकण्ड, मंडी में रिबालसर और पराशर झालो, तत्तापानी, शिमला व सिरमौर के क्षेत्रों में गिरिगंगा, रेणुका झील आदि, कांगड़ा में बाणगंगा तथा अन्य तीर्थ स्थानों पर स्नान किया जाता है।

2. नाहौले (Nahole)-

ज्येष्ठ मास की संक्रांति (13-14 मई) को निम्न भाग के क्षेत्रों में नाहौले नामक त्यौहार मनाया जाता है, जिसमें मीठे पकवान बनाकर खिलाये जाते हैं।

3. छिंज (Wrestling Bouts)-

चैत्र के महीने में हिमाचल के निम्न भाग के क्षेत्रों में कुछ लोग अपनी इच्छा पूरी हो जाने पर या कुछ लोग सामूहिक तौर पर स्थानीय देवता जिसे लखदाता कहते हैं, को प्रसन्न करने के लिए छिंज (एक प्रकार की कुश्ती) का मायोजन करते हैं, जिसमें दूर-दूर से पहलवान बुलाए जाते हैं।

4. चैत्र-संक्रांति (Chetra Sankranti)-

विक्रमी संवत् चैत्र मास की प्रथम तिथि से प्रारम्भ होता है। चैत्र की संक्रांति भी त्यौहार के रूप में मनाई जाती है ताकि नया वर्ष शुभ और उल्लास समय हो। निम्न भाग के हेसी या मंगलमुखी और मध्य तथा ऊपरी के ढाकी या तरी जाति के लोग सारे चैत्र महीने में शहनाई और ढोलकी बजाते हुए घर-घर जाकर नाच व मंगल गान करते हैं।

5. चतराली, चातरा या ढोलरू (Chatrali, Chatra or Dholru)-

कुल्लू में इस त्यौहार को चतराली कहते हैं और चम्बा व् भरमौर इलाके में इसे ढोलरू कहते हैं। चतराली में औरतें रात को इकट्ठी होकर नाच-गान हैं। ढोलरू में भी नृत्य का आयोजन किया जाता है।

6. चेरवाल (Cherwal)-

यह मध्य व ऊपरी भाग के क्षेत्रों का त्यौहार है, जो भाद्रपद की संक्रांति (अगस्त) से आरम्भ होकर सारा महीना मनाया जाता है। जमीन से गोलाकार मिट्टी की तह निकालकर एक लकड़ी के तख्ते पर रखी जाती है। एक इसी प्रकार की दूसरी छोटी तह निकालकर पहले वाली तह पर रखी जाती है और चारों ओर फूल व हरी घास सजाई जाती है। इसको चिड़ा कहते हैं। शाम को घर के सभी व्यक्ति धूप जलाकर और आदि देकर पूजा करते हैं। विशेष पकवान पकाए जाते हैं। बच्चे चिड़ा के गीत गाते हैं। भादों के अन्तिम दिन इसकी पूजा की जाती है और प्रथम आश्विन (सितम्बर) को इसे गोबर के ढेर पर फेंक दिया जाता है तथा बाद में उसे खेतों में ले जाया जाता है। कई लोग इसे पृथ्वी पूजा भी कहते हैं।

7. जागर या जगराता (Jagra or Jagrata)-

वैसे जगराता साल के किसी भी दिन किसी भी देवता की स्मृति में मनाया जा सकता है परन्तु भाद्रपद (अगस्त) महीने में जगराता का विशेष महत्व है। जगराता किसी देवी-देवता के मन्दिर में देवता को घर में बुलाकर सम्पन्न किया जा सकता है। जगराता रखने वाले परिवार और अड़ोस-पड़ोस या गांव के व्यक्ति सारी रात जाग कर संबंधित देवी-देवता का कीर्तन गान करते हैं।

8. बरलाज (Warlaj)-

दीवाली के दूसरे या तीसरे दिन बरलाज और उससे अगले दिन भैया-दूज का त्यो मनाया जाता है जिसमें चेरवाल त्यौहार की तरह पकवान भी पकाए जाते हैं। बरलाज वाले दिन कारीगर कोई काम नही करते और न ही ज़मींदार हल आदि चलाते हैं। इसे विश्वकर्मा दिवस भी कहते हैं।

9. लोहड़ी या माघ (Lohri or Magha)-

यह त्यौहार प्रथम माघ की संक्रांति को मनाया जाता है। कही-कही इसको लोहड़ी या मकर संक्रांति कहते हैं, मध्य भाग में माघी या साजा कहते है। इस दिन तीर्थ स्थानों पर स्नान करना शुभ माना जाता है। पकवान के रूप में चावल और दाल की खिचड़ी बनाई जाती है, जिसे घी या दही के साथ खाया जा है। गांव में अंगीठे जलाए जाते हैं जहां रात को लोग भजन कीर्तन गाते हैं। गांव के बच्चे, लड़के और लड़कियां अलग-अलग टोलियों में आठ दिन तक घर-घर जाकर लोहड़ी के गीत गाते हैं।

10. विजयदशमी या दशहरा Nilavdashmi or Dushahra)-

यह त्यौहार आश्विन के नवरात्रों के अंत में  मनाया जाता है। यह त्यौहार भारत में विजय दशमी या दशहरा नाम से मनाया जाता है। यह हिमाचल प्रदेश में भी मनाया जाता है। त्यौहार से पहले नौ दिन तक रामलीला का आयोजन किया जाता है तथा दशमी के दिन रावण, मेघनाथ कुम्भकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं। देश भर में हिमाचल में कुल्लू के दशहरे का विशेष स्थान है। यह मेला सात दिन चलता हैं तथा देश विदेश से इसे देखने के लिए लोग कुल्लू आते हैं।

11. होली (Holi)-

यह त्यौहार फाल्गुन पूर्णिमा को मनाया जाता है। लोग व्रत रखते हैं जो होली के जलाने के खोला जाता है। इस दिन बच्चे, बूढ़े, जवान स्त्री, पुरुष रंग और गुलाल की होली खेलते हैं और एक दूसरे पर लगाते हैं। 

12. शिवरात्रि (Shivratri)-

फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की चौदहवीं तिथि को मनाया जाने वाला शिवरात्रि त्यौहार हिमाचल प्रदेश में बहुत महत्व रखता है, क्योंकि शिवजी का हिमालय के पहाड़ों से सीधा संबंध माना जाता है। इस दिन व्रत रखा जाता है और शिवजी की पिंडी की पूजा की जाती है।

13. भारथ (Bharath)-

हिमाचल के निचले भागो में भादों के महीने और अन्य महीनों में भी भारथों का आयोजन किया जाता है। भारथ भी जगराते की भांति ही गाए जाते हैं। अन्तर इतना है कि भारथ में इस किस्म का गायन करने वाले कुशल टोली होती हैं। उस टोली के सदस्य ही अपने अलग वाद्य यंत्रों जिनमें डौरु और थाली आदि का बजाते तथा साथ-साथ गाते हैं। भारथ गायन का आधार किसी वीर देवीय पुरुष की गाथा होती है।

14. फुलेच (Phulech)-

भादों के अन्त या आश्विन के शुरू के महीने में मनाया जाने वाला यह किन्नौर का प्रसिद्ध त्यौहार है और मुख्यतःयह फूलो का त्यौहार है। यह त्योहार अलग-अलग तिथियों पर मनाया जाता है। इसे उख्यांक भी कहते हैं।

15. सैर (Sair)-

यह त्यौहार प्रथम आश्विन (सितम्बर) को मनाया जाता है। इसमें भी पकवान पकाए जाते हैं।  भादो महीने की अन्तिम रात को नाई एक थाली में गलगल के खट्टे को मूर्ति के रूप में सजाकर उस पर फूल चढ़ा कर और दीपक जलाकर घर-घर ले जाते हैं। लोग उसके आगे शीश झुकाते हैं और पैसे चढ़ाते हैं। कई उस दिन मेलों का आयोजन भी किया जाता है। यह त्यौहार बरसात की समाप्ति और आषाढी फसल के आने की खुशी में मनाया जाता है।

16. रक्षा बंधन, रखड़ी (बिलासपुर), रक्षपुण्या ( शिमला), सलुन ( मंडी-सिरमौर) (Rakshabandhan)-

यह त्यौहार सावन मास में पड़ने वाली पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों को टीका। कर राखी बांधती हैं।

17. खोहड़ी (Khohri)-

लोहड़ी के दूसरे दिन खोहड़ी मनाई जाती है, जिसमें कई स्थानों पर मेले लगाए जाते हैं। इस दिन कुंवारी लड़कियों के कान और नाक छेदना अच्छा समझा जाता है। इस दिन सरसों का साग बनाकर खाया जाना अच्छा समझा जाता है। कारीगर लोग इस दिन कोई काम नहीं करते।

18. नाग पंचमी (Nag Panchmi)-

यह श्रावण मास की शुक्ल पंचमी को मनाया जाता है। यह नागों की पूजा करके उन्हें प्रसन्न करने का त्यौहार है। नाग पंचमी के दिन ”बामी” (दीमक द्वारा जमीन पर तैयार किया गया पर्वतनुमा घर) में नागों के लिए दूध, कुगु और फूल डाले जाते हैं क्योंकि बामी में नागों का निवास माना जाता है।

19. श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (Shri Krishna Janamashtami)-

यह त्यौहार भादों की अष्टमी को श्री कृष्ण के जन्म दिवस पर मनाया जाता है। श्रीकृष्ण की बाल मूर्ति को पंचूड़े में झूलाकर उसकी पूजा की जाती है। व्रत और जगराता रखा जाता है। सारी रात श्रीकृष्ण का कीर्तन किया जाता है।

20. नवाला (Nawala)-

शिव पूजा के रूप में मनाया जाने वाला गद्दी कुनबे के लोगों का यह प्रसिद्ध त्यौहार है। यह पारिवारिक त्यौहार है, जो परिवार के प्रत्येक सदस्य को जीवन में एक बार मनाना जरूरी है।

21. हरितालिका (Haritalika)-

यह त्यौहार भादों महीने में कृष्ण पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। यह स्त्रियों का त्यौहार है। जिसमें स्त्रियां शिवजी-पार्वती और पक्षियों की मिट्टी की मूर्तियां बनाकर उन्हें सजाकर व रंग चढ़ाकर पूजती हैं। यह व्रत पतियों की रक्षा के लिए किया जाता है।

22. निर्जला एकादशी (Nirjla Ekadashi)-

यह त्योहार ज्येष्ठ महीने की शुक्ल एकादशी को मनाया जाता है। जिसमें एकादशी के सूर्योदय से दादशी के सर्यास्त तक अन्न या जल भी ग्रहण नहीं किया जाता जो गर्मी के दिनों में कडी तपस्या है। यह व्रत ऋषि व्यास ने भीम को बताया था क्योंकि वह अपने भाइयों और मां की भांति हर एकादशी को व्रत नहीं कर सकता था।

23. भुंडा, शान्द भोज (Bhunda Shand and Bhoj)-

भुंडा में निर्मण्ड (कुल्लू) का भुंडा अति प्रसिद्ध है। यह नरबेध यज्ञ की तरह नरबलि का उत्सव है। सरकार ने अब इस उत्सव में आदमी को शामिल किया जाना बन्द कर भीर आदमी के स्थान पर बकरा बिठाया जाता है परन्तु 20वीं सदी के आरम्भ तक भुंडा त्यौहार में आदमी की बली दी जाती थी।

शांद का संबंध समृद्धि से है। यह उत्सव खंड खश हर बारह साल के बाद मनाते हैं। यह उत्सव हाड़ी की चोटियों पर मनाया जाता है जिसमें गांव के देवता को पालकी में लाकर झुलाया जाता है और बकरे की बलि दी जाती है। सभी दर्शकों और गांव वालों के संबंधियों का स्वागत किया जाता है तथा चार-पांच दिनों तक उन्हें धाम खिलाई जाती है।

भोज भी शान्द की भांति का ही उत्सव है, जिसे कोली लोग ही मानते हैं।

 

 

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