Regulating Act

रेगुलेटिंग एक्ट(The Regulating Act)-1773

1765 में, बक्सर की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का दीवानी (राजस्व एकत्र करने का अधिकार) मिला। इसने भारत में वाणिज्यिक सह राजनीतिक प्रतिष्ठान के रूप में कंपनी बनाई। इस बीच, ब्रिटिश संसद में परिणामी प्रशासनिक अराजकता और कंपनी के सेवकों द्वारा अपार धन के संचय पर सवाल उठाए गए। इसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने कंपनी के मामलों में साबित करने के लिए एक गुप्त समिति का गठन किया। समिति द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट ने संसद द्वारा प्रस्तुत अधिनियम के लिए मार्ग प्रशस्त किया जिसे सरकारी नियंत्रण को लागू करने और कंपनी के मामलों को विनियमित करने के लिए रेगुलेटिंग एक्ट कहा गया।

तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड नार्थ’ द्वारा गठित ‘गुप्त समिति’ (SecretCommittee) की सिफारिश पर पारित एक्ट को 1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट‘ संज्ञा दी गई। इसका मुख्य उद्देश्य कम्पनी के कार्यों को भारत तथा ब्रिटेन दोनों स्थानों पर नियंत्रित करना तथा व्याप्त दोषों को समाप्त करना था। कम्पनी की गतिविधियों के दो मुख्य केन्द्र थे- इंग्लैंड, भारत।



कम्पनी के सम्पूर्ण प्रशासन के सुपरविजन हेतु इंग्लैण्ड में दो संस्थाएँ थी-
1. निदेशक मण्डल (Court of directores)
2. स्वत्वधारी मंडल (Court of Proprietors)

ये दोनों संस्थाएँ गृह सरकार की अंग थी। पूर्ववर्ती संस्था इंग्लैण्ड में कम्पनी की कार्यपालिका थी। इसमें 24 निदेशक होते थे। इनका चुनाव प्रतिवर्ष स्वत्वधारी मण्डल (Court of Propriters) द्वारा किया जाता था।
निदेशक मण्डल प्रतिवर्ष सदस्यों में से एक अध्यक्ष तथा एक उपाध्यक्ष का चुनाव करता था। अध्यक्ष कम्पनी का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता था। रेगुलेटिंग एक्ट के तहत निदेशक मण्डल (बोर्ड ऑफ डायरेक्टर) की कार्यावधि एक वर्ष के स्थान पर चार वर्ष का कर दी गया। साथ ही यह उपबन्धित किया कि कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की कुल सदस्य संख्या (24) के एक-चौथाई (1/4) सदस्य प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करेगें। तथा कम्पनी के निदेशक चुनने का अधिकार उन्हीं लोगों को होगा, जो कम से कम एक वर्ष पूर्व कम्पनी में 1000 पौण्ड के शेयर धारक रहे हों। ज्ञातव्य है कि इस ऐक्ट के पहले कम्पनी के निदेशक मण्डल का चुनाव कम्पनी के 500 पौण्ड के अंशधारियों द्वारा होता था।

  • भारतीय परिपेक्ष्य में कम्पनी प्रशासन में बंगाल के फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी के प्रशासक को इस एक्ट के माध्यम से अंग्रेजी क्षेत्रों का गर्वनर जनरल बना दिया गया। अर्थात् बंगाल (कलकत्ता) मुम्बई और मद्रास प्रेसिडेंसियाँ जो एक दूसरे से स्वतंत्र थीं, इस अधिनियम द्वारा बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन करके बंगाल के गवर्नर को तीनों प्रेसीडेसिंयों का गवर्नर जनरल बना दिया गया।
  • शासन की समस्त सैनिक तथा सिविल शक्तियों को गवनर जनरल तथा उसके चार सदस्यीय परिषद को सौंप दिया। गया और निर्णय में बहुमत हेतु गवर्नर जनरल को निर्णायक मत देने का अधिकार प्रदान किया गया।
  • अधिनियम के अधीन 1774 ई. में कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। सर एलिजाह इम्पे को मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य, चैम्बर्स, लिमेस्टर एवं हाइड को न्यायाधीश बनाया गया।
  • इस अधिनियम द्वारा कम्पनी के कर्मचारियों को बिना लाइसेंस प्राप्त किये व्यापार को प्रतिबंधित कर दिया गया।

ऐक्ट ऑफ सेटलमेंट(Act of settlement) 1781:

रेग्यूलेटिंग एक्ट, 1773 में अन्तर्निहित गम्भीर व्यावहारिक दोषों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद के प्रवर समिति के अध्यक्ष एडमंड वर्क के सुझाव के आधार पर इस एक्ट का प्रावधान किया गया। इसे ‘संशोधनात्मक अधिनियम’ (Amending Act) या बंगाल जूडीकेचर एक्ट(Bengal Judicature Act), 1781 की भी संज्ञा से अभिहित किया जाता है।

इस एक्ट के द्वारा कलकत्ता की सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का प्राधिकार प्रदान किया गया। इस प्रकार अब कलकत्ता की सरकार को विधि बनाने के दो स्रोत प्राप्त हो गये। पहला, रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के अधीन वह कलकत्ता प्रेसीडेन्सी के लिए और दूसरा ऐक्ट ऑफ सेटलमेंट के अधीन बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के दिवानी प्रदेशों के लिए विधि निर्मित कर सकती थी।

सर्वोच्च न्यायालय के लिए आदेशों और विधिया के सम्पादन में भारतीयों के धार्मिक व सामाजिक रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं का ध्यान रखने की भी आदेश दिया गया। अर्थात् गवर्नर जनरल की परिषद् अब जो नियम बनाएगी, उसे उच्चतम न्यायालय के पास पंजीकृत कराना आवश्यक नहीं होगा।

सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति को सीमित करते हए उसकी राजस्व अधिकारिता को समाप्त कर दिया गया तथा स्थानीय नियमों को ध्यान में रखकर नए कानूनों को प्रवर्तित करने का निर्देश दिया गया। इस प्रकार इस अधिनियम ने रेग्यूलेटिंग एक्ट के अनेक विवादों और कठिनाइयों को दूर कर दिया।

 

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